Menu
blogid : 5251 postid : 792742

ग़ज़ल (सहमा-सहमा हर इक चेहरा मंज़र-मंज़र ख़ून में तर)

Jatinder Parwaaz
Jatinder Parwaaz
  • 7 Posts
  • 1 Comment

सहमा-सहमा हर इक चेहरा मंज़र-मंज़र ख़ून में तर
शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर
तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है
तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर
बेमौसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों के
बेमौसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती पर
आ भी जा अब आने वाले कुछ इनको भी चैन पड़े
कब से तेरा रस्ता देखें छत, आंगन, दीवार-ओ-दर
जिस की बातें अम्मा-अब्बू अक़्सर करते रहते हैं
सरहद पार न जाने कैसा वो होगा पुरखों का घर
….. जतिंदर परवाज़ +91 9914405111

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh